Original Photo Of Chhatrapati Shivaji Maharaj with Signature
Chitramay Shivrajyabhishek
Chitramay Shivarajyabhishek Dr. Uday Nirgudkar and Babasaheb Purandare on zee 24 Taas
चरित्रवान..छत्रपति...शिवाजी
छत्रपति शिवाजी महाराज जितने तलवार के धनी थे, उतने ही धनी चरित्र के भी थे। अपनी तलवार और चरित्र को उन्होंने कभी दागदार नहीं होने दिया।
एक बार शिवाजी के एक वीर सेनापति ने कल्याण का किला जीता। हथियारों के जखीरे के साथ-साथ अकूत संपत्ति भी उसके हाथ लगी।
एक सैनिक ने मुगल किलेदार की परम सुंदर बहू को उसके समक्ष पेश किया। वह सेनापति उस नवयौवना के सौंदर्य पर मुग्ध हो गया और उसने शिवाजी को नजराने के रूप में उसे भेंट करने की ठानी। उस सुंदरी को एक पालकी में बिठाकर वह शिवाजी के पास पहुंचा।
शिवाजी उस समय अपने सेनापतियों के साथ शासन-व्यवस्था के संबंध में बातचीत कर रहे थे।
उस सेनापति ने शिवाजी को प्रणाम किया और कहा कि वह कल्याण में प्राप्त एक सुंदर चीज उन्हें भेंट करना चाहता है। यह कह कर उसने एक पालकी की ओर इंगित किया।
शिवाजी ने ज्यों ही पालकी का पर्दा उठाया तो देखा कि उसमें एक खूबसूरत मुगल नवयौवना बैठी हुई है।
उनका शीश लज्जा से झुक गया और उनके मुख से सहसा ये शब्द निकले - 'काश! हमारी माता भी इतनी खूबसूरत होतीं तो मैं भी खूबसूरत होता।'
इसके बाद अपने सेनापति को डांटते हुए शिवाजी ने कहा - 'तुम मेरे साथ रहकर भी मेरे स्वभाव को नहीं जान सके? शिवाजी दूसरे की बहू-बेटियों को अपनी माता की तरह मानता है। अभी जाओ और ससम्मान इन्हें इनके घर पहुंचा के आओ।
सेनापति को काटो तो खून नहीं। कहां तो वह अपने को इनाम का हकदार समझ रहा था और नसीब हुई तो सिर्फ फटकार। लेकिन मुगल किलेदार की बहू को उसके घर पहुंचाने के अलावा सेनापति के पास चारा ही क्या था।
मन ही मन उसने शिवाजी के चरित्र को सराहा और उस मुगल नवयौवना को उसके घर पहुंचाने के लिए वहां से चल पड़ा।
आगे छ. शिवाजी महाराजने अत्यधिक पराक्रम करनेपर समर्थ रामदास स्वामीजीने स्वयं शिंगणवाडी प्रत्यक्ष आकर महाराजको दर्शन दिए । महाराजने उनकी पाद्यपूजा की । समर्थजीने उन्हें प्रसाद के रूपमें एक नारियल, मुठ्ठीभर माटीr, लीद एवं पत्थर दिए । उस समय महाराजके मनमें आया कि़, ‘हमें राज्यकारभारका त्याग कर समर्थजीकी सेवा करनेमें शेष आयु लगानी चाहिए । समर्थजी महाराजके मनका यह विचार समझ गए और उन्होंने कहा ‘राजा, क्षत्रिय धर्मका पालन कीजिए । प्राण जानेपर भी धर्मका त्याग न करें । प्रजाके रक्षणके लिए तुम्हारा जन्म हुआ है, वह छोडकर यहां सेवा करनेके लिए न रहें । मेरा केवल स्मरण करनेपर भी मैं आपसे मिलने आऊंगा । सुखसे, आनंदसे राज्य कीजिए' । तत्पश्चात् समर्थजीने उन्हें राज्य करनेकी आदर्श पद्धति समझाई । समर्थजीने महाराजको उनके कल्याणके लिए नारियल दिया था । सर्वथा संतुष्ट एवं तृप्त मनसे छ. शिवाजी महाराज राज्य करने लगे । महाराजने माटी अर्थात पृथ्वी, पत्थर अर्थात गढ जीता एवं लीद अर्थात अश्वदलसे भी समृद्ध हो गए । गुरुके कृपाप्रसादसे महाराजको किसी वस्तुका अभाव नहीं रहा ।
छ. शिवाजी महाराजने विदेशी शत्रुओंका नाश करके स्वराज्यकी स्थापना करनेका जो कार्य आरंभ किया था उसपर समर्थजीको अत्यधिक अभिमान था । वे लोगोंको छत्रपतीजीके कार्यमें सहायता करने तथा शक्ति संपादन करके स्वराज्य एवं धर्मरक्षणके लिए लडनेका उपदेश करते थे । छ. शिवाजी महाराजकी समर्थजीके प्रति अत्यधिक श्रद्धा थी । अनेक प्रसंगोंमें महाराज समर्थ रामदास स्वामीजीका विचार एवं आशिर्वाद लेते थे । आपत्कालमें हमें सतर्कता कैसे बरतना चाहिए, इस संदर्भमें समर्थजाद्वारा छ. शिवाजी महाराजको दिया गया उपदेश ‘दासबोध' नामक ग्रंथमें है । उसमें समर्थजी कहते हैं, ‘सदैव सतर्कतासे रहकर आचरण करें, शत्रु-मित्रको ठीकसे परखें, एकांतमें अत्यधिक विचार कर योजना बनाएं, निरंतर प्रयास करते रहें । इसके पूर्व अनेक महान लोग हो गए, उन्होंने अत्यधिक बुरी स्थिति तथा कष्ट सहन किए हैं । आलसका त्याग कर, बिना कष्टके अनेक लोगोंसे मित्रता करके कार्य करते रहें’।
बालमित्रो, छ. शिवाजी महाराजको समर्थ रामदासस्वामीजीसे मिलनेकी लालसा थी । उनकी तीव्र उत्कंठासे उन्हें स्वप्नमें एवं तदुपरांत प्रत्यक्ष समर्थ रामदास स्वामीजीके दर्शन हुए । उत्कंठासे हम किसी भी लक्ष्यको साध्य कर सकते हैं ।
शिवाजी ने उन्हें दंडवत प्रणाम किया और उनसे अनुग्रह के लिए विनती की। समर्थ ने उन्हें त्रयोदशाक्षरी मंत्र देकर अनुग्रह किया और "आत्मानाम" विषय पर गुरुपदेश दिया (यह "लघुबोध" नाम से प्रसिद्ध है और "दासबोध" में समाविष्ट है।) फिर उन्हें श्रीफल, एक अंजलि मिट्टी, दो अंजलियाँ लीद एवं चार अंजलियाँ भरकर कंकड़ दिए।
जब शिवाजी ने उनके सान्निध्य में रहकर लोगों की सेवा करने की इच्छा व्यक्त की, तो संत बोले- "तुम क्षत्रिय हो, राज्यरक्षण और प्रजापालन तुम्हारा धर्म है। यह रघुपति की इच्छा दिखाई देती है।" और उन्होंने "राजधर्म" एवं "क्षात्रधर्म" पर उपदेश दिया।
शिवाजी जब प्रतापगढ़ वापस आए और उन्होंने जीजामाता को सारी बात बताई, तो उन्होंने पूछा- "श्रीफल, मिट्टी, कंकड़ और लीद का प्रसाद देने का क्या प्रयोजन है?" शिवाजी ने बताया- "श्रीफल मेरे कल्याण का प्रतीक है, मिट्टी देने का उद्देश्य पृथ्वी पर मेरा आधिपत्य होने से है, कंकड़ देकर यह कामना व्यक्त हो गई है कि अनेक दुर्ग अपने कब्जे में कर पाऊँ और लीद अस्तबल का प्रतीक है, अर्थात उनकी इच्छा है कि असंख्य अश्वाधिपति मेरे अधीन रहें।" इस प्रकार राजधर्म को समझकर शिवा ने अपनी शक्ति का विस्तार किया और न्याय नीति की स्थापना की।
Original Photo Of Chhatrapati Shivaji Maharaj with Signature |
Chitramay Shivrajyabhishek
Chitramay Shivarajyabhishek Dr. Uday Nirgudkar and Babasaheb Purandare on zee 24 Taas
चरित्रवान..छत्रपति...शिवाजी
छत्रपति शिवाजी महाराज जितने तलवार के धनी थे, उतने ही धनी चरित्र के भी थे। अपनी तलवार और चरित्र को उन्होंने कभी दागदार नहीं होने दिया।
एक बार शिवाजी के एक वीर सेनापति ने कल्याण का किला जीता। हथियारों के जखीरे के साथ-साथ अकूत संपत्ति भी उसके हाथ लगी।
एक सैनिक ने मुगल किलेदार की परम सुंदर बहू को उसके समक्ष पेश किया। वह सेनापति उस नवयौवना के सौंदर्य पर मुग्ध हो गया और उसने शिवाजी को नजराने के रूप में उसे भेंट करने की ठानी। उस सुंदरी को एक पालकी में बिठाकर वह शिवाजी के पास पहुंचा।
शिवाजी उस समय अपने सेनापतियों के साथ शासन-व्यवस्था के संबंध में बातचीत कर रहे थे।
उस सेनापति ने शिवाजी को प्रणाम किया और कहा कि वह कल्याण में प्राप्त एक सुंदर चीज उन्हें भेंट करना चाहता है। यह कह कर उसने एक पालकी की ओर इंगित किया।
शिवाजी ने ज्यों ही पालकी का पर्दा उठाया तो देखा कि उसमें एक खूबसूरत मुगल नवयौवना बैठी हुई है।
उनका शीश लज्जा से झुक गया और उनके मुख से सहसा ये शब्द निकले - 'काश! हमारी माता भी इतनी खूबसूरत होतीं तो मैं भी खूबसूरत होता।'
इसके बाद अपने सेनापति को डांटते हुए शिवाजी ने कहा - 'तुम मेरे साथ रहकर भी मेरे स्वभाव को नहीं जान सके? शिवाजी दूसरे की बहू-बेटियों को अपनी माता की तरह मानता है। अभी जाओ और ससम्मान इन्हें इनके घर पहुंचा के आओ।
सेनापति को काटो तो खून नहीं। कहां तो वह अपने को इनाम का हकदार समझ रहा था और नसीब हुई तो सिर्फ फटकार। लेकिन मुगल किलेदार की बहू को उसके घर पहुंचाने के अलावा सेनापति के पास चारा ही क्या था।
मन ही मन उसने शिवाजी के चरित्र को सराहा और उस मुगल नवयौवना को उसके घर पहुंचाने के लिए वहां से चल पड़ा।
शिवाजी महाराजकी गुरु भेंट
समर्थ रामदास स्वामीजीकी ख्याति
सुननेपर छ.शिवाजी महाराजको उनके दर्शनकी लालसा निर्माण हुई । उनसे
मिलनेके लिए वे कोंढवळको गए । वहां भेट होगी इस आशासे सायंकालतक रुके, तब
भी महाराजकी स्वामीजीसे भेंट नहीं हुई । तत्पश्चात प्रतापगढ आनेपर रातमें
नींदमें भी महाराजके मनमें वही विचार था । समर्थ रामदास स्वामीजी जानबूझकर
महाराजसे मिलना टाल रहे थे । ऐसे ही कुछ दिन निकल जानेपर एक दिन समर्थजीके
दर्शनकी लालसा अत्यधिक बढनेसे वे भवानीमाताके मंदिरमें गए । उस रात वे
वहांपर ही देवीके सामने निद्राधीन हो गए । रातमें स्वप्नमें उन्हें
पैरमें खडांऊ, देहपर भगवा वस्त्र, हाथमें माला, बगलमें कुबडी ऐसे तेजस्वी
रूपमें समर्थ रामदास स्वामीजीके दर्शन हुए । छ. शिवाजी महाराजने उन्हें
साष्टांग नमस्कार किया । समर्थजीने उनके सिरपर हाथ रखकर उन्हें आशिर्वाद
दिया । नींदमेंसे जागनेपर महाराजने देखा तो उनके हाथमें प्रसादके रूपमें
नारियल था । उस समयसे वे समर्थ रामदास स्वामीजीको अपने गुरु मानने लगे ।आगे छ. शिवाजी महाराजने अत्यधिक पराक्रम करनेपर समर्थ रामदास स्वामीजीने स्वयं शिंगणवाडी प्रत्यक्ष आकर महाराजको दर्शन दिए । महाराजने उनकी पाद्यपूजा की । समर्थजीने उन्हें प्रसाद के रूपमें एक नारियल, मुठ्ठीभर माटीr, लीद एवं पत्थर दिए । उस समय महाराजके मनमें आया कि़, ‘हमें राज्यकारभारका त्याग कर समर्थजीकी सेवा करनेमें शेष आयु लगानी चाहिए । समर्थजी महाराजके मनका यह विचार समझ गए और उन्होंने कहा ‘राजा, क्षत्रिय धर्मका पालन कीजिए । प्राण जानेपर भी धर्मका त्याग न करें । प्रजाके रक्षणके लिए तुम्हारा जन्म हुआ है, वह छोडकर यहां सेवा करनेके लिए न रहें । मेरा केवल स्मरण करनेपर भी मैं आपसे मिलने आऊंगा । सुखसे, आनंदसे राज्य कीजिए' । तत्पश्चात् समर्थजीने उन्हें राज्य करनेकी आदर्श पद्धति समझाई । समर्थजीने महाराजको उनके कल्याणके लिए नारियल दिया था । सर्वथा संतुष्ट एवं तृप्त मनसे छ. शिवाजी महाराज राज्य करने लगे । महाराजने माटी अर्थात पृथ्वी, पत्थर अर्थात गढ जीता एवं लीद अर्थात अश्वदलसे भी समृद्ध हो गए । गुरुके कृपाप्रसादसे महाराजको किसी वस्तुका अभाव नहीं रहा ।
छ. शिवाजी महाराजने विदेशी शत्रुओंका नाश करके स्वराज्यकी स्थापना करनेका जो कार्य आरंभ किया था उसपर समर्थजीको अत्यधिक अभिमान था । वे लोगोंको छत्रपतीजीके कार्यमें सहायता करने तथा शक्ति संपादन करके स्वराज्य एवं धर्मरक्षणके लिए लडनेका उपदेश करते थे । छ. शिवाजी महाराजकी समर्थजीके प्रति अत्यधिक श्रद्धा थी । अनेक प्रसंगोंमें महाराज समर्थ रामदास स्वामीजीका विचार एवं आशिर्वाद लेते थे । आपत्कालमें हमें सतर्कता कैसे बरतना चाहिए, इस संदर्भमें समर्थजाद्वारा छ. शिवाजी महाराजको दिया गया उपदेश ‘दासबोध' नामक ग्रंथमें है । उसमें समर्थजी कहते हैं, ‘सदैव सतर्कतासे रहकर आचरण करें, शत्रु-मित्रको ठीकसे परखें, एकांतमें अत्यधिक विचार कर योजना बनाएं, निरंतर प्रयास करते रहें । इसके पूर्व अनेक महान लोग हो गए, उन्होंने अत्यधिक बुरी स्थिति तथा कष्ट सहन किए हैं । आलसका त्याग कर, बिना कष्टके अनेक लोगोंसे मित्रता करके कार्य करते रहें’।
बालमित्रो, छ. शिवाजी महाराजको समर्थ रामदासस्वामीजीसे मिलनेकी लालसा थी । उनकी तीव्र उत्कंठासे उन्हें स्वप्नमें एवं तदुपरांत प्रत्यक्ष समर्थ रामदास स्वामीजीके दर्शन हुए । उत्कंठासे हम किसी भी लक्ष्यको साध्य कर सकते हैं ।
शिवाजी को गुरु का संदेश
जब छत्रपति शिवाजी को यह पता चला कि समर्थ रामदासजी ने महाराष्ट्र के
ग्यारह स्थानों में हनुमानजी की प्रतिमा स्थापित की है और वहाँ हनुमान
जयंती उत्सव मनाया जाने लगा है, तो उन्हें उनके दर्शन की उत्कृष्ट अभिलाषा
हुई। वे उनसे मिलने के लिए चाफल, माजगाँव होते हुए शिगड़वाड़ी आए। वहाँ समर्थ
रामदासजी एक बाग में वृक्ष के नीचे "दासबोध" लिखने में मग्न थे।शिवाजी ने उन्हें दंडवत प्रणाम किया और उनसे अनुग्रह के लिए विनती की। समर्थ ने उन्हें त्रयोदशाक्षरी मंत्र देकर अनुग्रह किया और "आत्मानाम" विषय पर गुरुपदेश दिया (यह "लघुबोध" नाम से प्रसिद्ध है और "दासबोध" में समाविष्ट है।) फिर उन्हें श्रीफल, एक अंजलि मिट्टी, दो अंजलियाँ लीद एवं चार अंजलियाँ भरकर कंकड़ दिए।
जब शिवाजी ने उनके सान्निध्य में रहकर लोगों की सेवा करने की इच्छा व्यक्त की, तो संत बोले- "तुम क्षत्रिय हो, राज्यरक्षण और प्रजापालन तुम्हारा धर्म है। यह रघुपति की इच्छा दिखाई देती है।" और उन्होंने "राजधर्म" एवं "क्षात्रधर्म" पर उपदेश दिया।
शिवाजी जब प्रतापगढ़ वापस आए और उन्होंने जीजामाता को सारी बात बताई, तो उन्होंने पूछा- "श्रीफल, मिट्टी, कंकड़ और लीद का प्रसाद देने का क्या प्रयोजन है?" शिवाजी ने बताया- "श्रीफल मेरे कल्याण का प्रतीक है, मिट्टी देने का उद्देश्य पृथ्वी पर मेरा आधिपत्य होने से है, कंकड़ देकर यह कामना व्यक्त हो गई है कि अनेक दुर्ग अपने कब्जे में कर पाऊँ और लीद अस्तबल का प्रतीक है, अर्थात उनकी इच्छा है कि असंख्य अश्वाधिपति मेरे अधीन रहें।" इस प्रकार राजधर्म को समझकर शिवा ने अपनी शक्ति का विस्तार किया और न्याय नीति की स्थापना की।
Original
Photo Of Chhatrapati Shivaji Maharaj with Signature
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